dar shayari | डर शायरी
दरवाज़ा बंद देख के मेरे मकान का
झोंका हवा का खिड़की के पर्दे हिला गया
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तुम्हारे घर में दरवाज़ा है लेकिन
तुम्हें ख़तरे का अंदाज़ा नहीं है
हमें ख़तरे का अंदाज़ा है लेकिन
हमारे घर में दरवाज़ा नहीं है
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डर शायरी रेख़्ता
बस इक पुकार पे दरवाज़ा खोल देते हैं
ज़रा सा सब्र भी इन आँसुओं से होता नहीं
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दरवाज़ा जो खोला तो नज़र आए खड़े वो
हैरत है मुझे आज किधर भूल पड़े वो
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निडर शायरी
दरवाज़ा खुला है कि कोई लौट न जाए
और उस के लिए जो कभी आया न गया हो
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खुला है दर प तिरा इंतिज़ार जाता रहा
ख़ुलूस तो है मगर एतिबार जाता रहा
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मौत से डर नहीं लगता शायरी
दीवार ओ दर झुलसते रहे तेज़ धूप में
बादल तमाम शहर से बाहर बरस गया
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लिए फिरा जो मुझे दर-ब-दर ज़माने में
ख़याल तुझ को दिल-ए-बे-क़रार किस का था
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खोने का डर शायरी
दर-ब-दर फिरने ने मेरी क़द्र खोई ऐ फ़लक
उन के दिल में ही जगह मिलती जो ख़ल्वत मांगता
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मैं तिरे दर का भिकारी तू मिरे दर का फ़क़ीर
आदमी इस दौर में ख़ुद्दार हो सकता नहीं
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डर पर दोहे
थोड़ा-सा तो डर हर दिल में होना चाहिए,
कठिनाइयों को देख कर नहीं रोना चाहिए।
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मंजिल की खोज में जो पहले ही डर जाते हैं,
अपने मुकाम से वो बहुत दूर चले जाते हैं।
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खौफ पर शायरी
डर तो सिर्फ और सिर्फ दिमाग के अंदर है,
जो उससे जीत जाए वो ही सिकंदर है
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मैं भी डर गया था मुश्किलें देख,
फिर आगे बढ़ गया मंजिलें देख,
खुद राहें मुझे मिलती चली गईं,
मुश्किलें हार गईं मेरा हौसला देख
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जिसने डर की वजह से मैदान छोड़ दिया,
उसकी किस्मत ने उसका साथ छोड़ दिया।